Revolution in Rajasthan: राजस्थान में 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण जानकारी

मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात् देश में उत्पन्न अराजकता से राजस्थान भी अछूता नहीं रहा। 1857 की क्रांति औरंगजेब की मृत्यु से उत्पन्न शक्ति रिक्तता को एकबारगी तो मराठों ने भर दिया। मराठों ने दक्षिण में प्रभुत्व स्थापित करने के पश्चात् मालवा और गुजरात में अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था । अतः अब उनके लिए राजस्थान मे प्रवेश करना सहज हो गया था। मई 1711 ई. में प्रथम बार मराठों ने मंदसौर के निकट मेवाडी क्षेत्र से धन एकत्र किया था। इस घटना से चिंतित उदयपुर के महाराणा संग्राम सिंह ने पहले जयपुर के शासक जयसिंह और बाद में मुगल बादशाह मुहम्मद शाह से मराठा समस्या के बारे में विचार-विमर्श किया था। 

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Revolution in Rajasthan

1857 की क्रान्ति से पहले का राजस्थान

1724 ई. के बाद राजस्थान में मराठा आक्रमणों में तेजी आई। इसी बीच अप्रैल, 1734 ई. में बूँदी के पदच्युत शासक बुद्धसिंह ने मराठा सहायता प्राप्त कर दलेल सिंह को गद्दी से हटा दिया। राजस्थान के किसी शासक द्वारा आन्तरिक संघर्ष में मराठों को आमंत्रित करने का यह प्रथम अवसर था। बाद में तो राजस्थान में मराठों का हस्तक्षेप बढ़ता ही गया।

1735 ई. में मालवा पर अधिकार करने के बाद मराठों को राजस्थान पर आक्रमण करने के लिए एक आसान मार्ग मिल गया। राजस्थान में मराठे कोटा, मेवाड़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा में घुसपैठ कर वहाँ से धन पाने के बाद कुछ समय तक संतुष्ट रहे, लेकिन शीघ्र ही वे राजाओं को ही नहीं व्रन सेठ साहूकारों को भी लूटने लगे। उन्होंने राजस्थान के नरेशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना भी प्रारम्भ कर दिया। बूँदी, जोधपुर और जयपुर रियासतों में उनका प्रवेश इसी बहाने हुआ।

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1857 की क्रान्ति की प्रमुख संधियां 

1803 की सहायक संधि का जनक लॉर्ड वैलेजली को माना जाता है लेकिन राजस्थान के राजाओं के साथ संधि करने वाला मेटकाॅप था। 1817-18 की आश्रित पार्थक्य संधि लार्ड हेस्टिगज ने की। 29 सितम्बर 1803 ई. को सर्वप्रथम भरतपुर शासक रणजीत सिंह ने अंग्रेजों के साथ सहायक संधि की थी। सहायक संधियां राजपूताना के सभी राजाओं द्वारा नहीं करने पर 1817-18 में आश्रित पार्थक्य संधि का नया सिद्धांत आया था।

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आश्रित पार्थक्य संधि लॉर्ड हेस्टिगज के काल में मराठा आक्रांता से बचने हेतु राजपूताना के राजाओं द्वारा यह संधि की गई। सर्वप्रथम सहायक संधि करौली रियासत हरबक्शपाल सिंह ने की। सर्वप्रथम व्यापक व विस्तृत संधि 15 नवंबर 1817 में कोटा रियासत ने की। अंतिम संधि सिरोही रियासत ने 11 सितंबर 1823 को की थी और इस समय सिरोही का शासक शिव सिंह था।

1857 की क्रांति के कारण

  • राज्यों के आंतरिक मामलों में E.I.C (ईस्ट इंडिया कंपनी) का हस्तक्षेप।
  • धार्मिक व आर्थिक शोषण।
  • सामंतों के अधिकारों पर कठुरा घाट।
  • अफीम खेती/खेती पर नियंत्रण। कंपनी अधिकारियों की नियुक्ति।
  • गोद निषेध नीति इत्यादि।
  • नोट:- राजपूताना में सर्वप्रथम संधियों का उल्लंघन करने वाला शासक जोधपुर के मान सिंह राठौड़ एवं भरतपुर शासक रणजीत सिंह थे।

क्रांति के समय भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग था। क्रांति के समय राजस्थान का A.G.G लॉर्ड पैट्रिक लॉरेंस था। 1857 की क्रांति का प्रतीक चिन्ह कमल का फूल व चपाती या रोटी था।
नोट:- कमल के फूल का प्रयोग भारतीय सैनिक जबकि चपाती या रोटी का प्रयोग जमींदार/सामंत करते थे। 1857 की क्रांति के समय राजस्थान में कुल 6 सैनिक छावनियाॅ थी नसीराबाद सैनिक छावनी (अजमेर), ब्यावर सैनिक छावनी (अजमेर), नीमच (मध्यप्रदेश), खेरवाड़ा (उदयपुर), देवली (टॉक), एरिनपुरा सैनिक छावनी (पाली) इत्यादि।

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नोट:- इन 6 छावनियों को हम निम्न सूत्र के माध्यम से याद रख सकते हैं याद करने का सूत्र एननी देख ब्याव 

राजस्थान में क्रांति के समय रियासती शासक
कोटा रियासत राम सिंह
जोधपुर रियासत तख्त सिंह
भरतपुर रियासत जसवंत सिंह
उदयपुर रियासत स्वरूप सिंह
जयपुर रियासत राम सिंह द्वितीय
सिरोही रियासत शिव सिंह
धौलपुर रियासत भगवंत सिंह
बीकानेर रियासत सरदार सिंह
करौली रियासत मदनपाल
टोंक रियासत नवाब वजीरूद्दौला
बूंदी रियासत राम सिंह
अलवर रियासत विनय सिंह
जैसलमेर रियासत रणजीत सिंह
झालावाड़ रियासत पृथ्वी सिंह
प्रतापगढ़ रियासत दलपत सिंह
बांसवाड़ा रियासत लक्ष्मण सिंह
डूंगरपुर रियासत उदय सिंह

राजस्थान में राजपूताना रेजिडेंसी 

राजपूताना रेजिडेंसी की स्थापना 1818 में दिल्ली में हुई थी इसकी स्थापना के समय मुख्य अधिकारी का नाम रेजिडेंट ऑफ राजपूताना कहलाता था। राजस्थान का प्रथम रेजिडेंट ऑफ राजपूताना डेविड ऑक्टरलोनी थे। 1832 में इसी रेजिडेंसी को अजमेर-मेरवाड़ा स्थापित की गई। इस रेजीडेंसी का मुख्य अधिकारी का नाम A.G.G. [एजेंट टू गवर्नर जनरल] कर दिया गया। प्रथम A.G.G. पैट्रिक लॉरेंस था। राजपूताना रेजिडेंसी का अस्थाई मुख्यालय माउंट आबू (सिरोही) में था।

राजस्थान में क्रांति के समय ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेन्ट
कोटा रियासत मेजर बर्टन
जोधपुर रियासत मैक मैसन
भरतपुर रियासत मोरिसन
जयपुर रियासत ईडन
उदयपुर रियासत शावर्स ऑर
सिरोही रियासत जे. डी. हॉल

1857 की क्रांति का तात्कालिक कारण

  1. भारतीय सैनिकों को ब्राउन बैस राइफल के आधार पर एनफील्ड राईफल दी गई जिसमें प्रयुक्त होने वाले कारतूसों पर गायों व सूअर की चर्बी का खोल लगा होता था।
  2. बैरकपुर छावनी कलकाता में 34 वीं रेजीडेण्ट के ब्राह्मण सैनिक मंगल पांडे पर इस राइफल का दबाव बनाए जाने के कारण 29 मार्च 1857 ईस्वी को पांडे ने हयुसन व बोग नामक अंग्रेज अधिकारियों की हत्या की। इस हत्याकांड के परिणाम स्वरूप 8 अप्रैल 1857 को मंगल पांडे को फांसी दी गई।
  3. 10 मई 1857 ई को पांडे के फांसी का विरोध करते हुए मेरठ के सैनिकों ने क्रांति का बिगुल बजाया मेरठ के सैनिक दिल्ली की तरफ कूच किया।
  4. दिल्ली में अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर थे जिन्हें क्रांति का नेता एवं दिल्ली को क्रांति का केंद्र बनाया। बहादुर शाह को कैद कर अंग्रेजों ने रंगनु जेल (बर्मा) में कैद किया।
  5. बहादुर शाह की अनुपस्थिति में क्रांति का नेतृत्व इनके सेनापति बख्तान खान ने किया।

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राजस्थान में क्रांति की सूचना 19 मई 1857 को माउंट आबू (सिरोही) में पहुंची थी। राजस्थान में सर्वप्रथम क्रांति की शुरुआत 28 मई 1857 को नसीराबाद छावनी (अजमेर) से शुरू हुई थी। 19 मई 1857 ई. को सर्वप्रथम राजस्थान में क्रांति की सूचना A.G.G. पैट्रिक लॉरेंस माउंट आबू सिरोही पहुंची थी क्योंकि राजस्थान में अत्यधिक गर्मी होने के कारण मई-जून में इनका मुख्यालय माउंट आबू सिरोही में होता था।

पैट्रिक लॉरेंस अजमेर की सुरक्षा हेतु ब्यावर अजमेर से दो मेर लिजियम टुकड़िया व कोटा से डिसा, यूरोपियन टुकड़िया अजमेर बुलाई। अजमेर में सुरक्षा कर रही 15वी बंगाल नेटिव इन्फेंट्री को नसीराबाद भेज दिया गया। यही कारण राजस्थान में क्रांति का मुख्य कारण माना जाता है।

राजस्थान के सैनिक विद्रोह

नसीराबाद विद्रोह 28 मई 1857

15वी बंगाल नेटिव इन्फेंट्री और 30वी बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के सैनिकों ने विद्रोह किया।विद्रोह का कारण 15 वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री को अजमेर के सुरक्षा से हटाकर नसीराबाद भेजना था। 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के सैनिक बख्तावर सिंह द्वारा न्युबरी से सवाल जवाब करने पर संदेह की स्थिति उत्पन्न होना।

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क्रांतिकारियों को दिल्ली जाने से रोकने हेतु वॉल्टर एवं हीथकोर्ट ने मेवाड़ सेना की सहायता से क्रांतिकारियों का पीछा किया लेकिन असफल रहे। 18 जून 1887 नसीराबाद के सैनिक दिल्ली पहुंचकर केंद्रीय क्रांति में शामिल हो जाते हैं। नसीराबाद में निवास कर रहे अंग्रेज परिवारों को जोधपुर आने का नेता तख्त सिंह ने दिया।जोधपुर जाते समय कर्नल पन्नी नामक अंग्रेजी अधिकारी का हृदयाघात से निधन हो गया था।

नीमच छावनी का विद्रोह 3 जून 1857

नीमच के प्रमुख अंग्रेज अधिकारी एबाॅट था। नीमच छावनी का कप्तान मैकडॉनल्ड था। नीमच विद्रोह का नेतृत्व हीरालाल बेग व मोहम्मद अली ने किया था। एबाॅट ने सैनिकों को विद्रोह ना करने हेतु कुरान व गंगा की कसम दिलाई। 3 जून को रात्रि 11:00 बजे नीमच छावनी में विद्रोह की शुरुआत हो गई। नीमच छावनी में लूटते हुए 1857 ई. को सैनिक देवली टोंक सैनिक छावनी में पहुंचे। देवली से कोटा होते हुए दिल्ली की तरफ प्रस्थान किया एवं रास्ते में बंधक अंग्रेजों जंगलों में छोड़ दिया गया। नीमच के सैनिकों को रोकने हेतु हार्ड केसल, हीथ कोट एवं पैट्रिक लॉरेंस ने पीछा किया लेकिन असफल रहे।

20 जून 1857 ईस्वी को सैनिक दिल्ली पहुंचे। जंगलों में भटकते 40 अंग्रेज अधिकारियों की रक्षा हेतु मेवाड़ का पोलिटिकल एजेंट में मेंजर शावर्श पहुंचा। मेंजर शावर्श अंग्रेजों सहित डूंगला गांव में रुघाराम नामक किसान के घर शरण ली। स्वरूप सिंह की सहायता हेतु डूंगला गांव पहुंच कर इन्हें उदयपुर ले जाता एवं पिछोला झील में स्थित जगत मंदिर में शरण देता है।

एरिनपुरा छावनी पाली

एरिनपुरा छावनी में सैनिक बटालियन जोधपुर लिजियन के सैनिकों को पुर्बिया सैनिक का जाता है। जोधपुरी लिजियम के कुछ सैनिक आनाद्वा रोवा गांव सिरोही के ठाकुर जगत सिंह के विद्रोह को दबाने हेतु गए हुए थे। 21 अगस्त 1857 को माउंट आबू में जोधपुर लीजन के सैनिकों ने विद्रोह किया। पुर्बिया सैनिक 23 अगस्त 1857 को एरिनपुरा पहुंचकर मोती खां व शीतल प्रसाद के नेतृत्व में क्रांति का बिगुल बजाते हैं। एरिनपुरा के सैनिक आसोप जोधपुर के ठाकुर शिवनाथ सिंह के नेतृत्व में दिल्ली की तरफ कूच करते हैं। शिवनाथ शिवाने चलो दिल्ली मारो फिरंगी का नारा दिया था।

कोटा में 1857 की क्रांति :

राजस्थान के राज्यों में हुई 1857 ई. की क्रांति में कोटा का महत्वपूर्ण स्थान है। कोटा में विद्रोह का मुख्य कारण यह था कि पोलिटिकल एजेन्ट मेजर बर्टन ने कोटा महाराव को यह सलाह दी कि कुछ अफसर वफादार नहीं है तथा उनका रवैया अंग्रेज विरोधी है। अतः वे ऐसे अफसरों को पदच्युत कर अंग्रेज अधिकारियों को सौंप दें जिससे उन्हें उचित दण्ड दिया जा सके। मेजर बर्टन ने जिन अफसरों को सौंपने की मांग की थी, उनमें जयदयाल, रतनलाल, जियालाल आदि प्रमुख थे मेजर बर्टन द्वारा महाराव को 1 जो सलाह दी गई थी, वह किसी प्रकार महाराव की फौज तथा फौज के अधिकारियों पर प्रकट हो गई। फलस्वरूप फौज के सभी सिपाही क्रोध से पागल हो उठे और उन्होंने मेजर बर्टन से बदला लेने का निश्चय किया। तदनुसार 15 अक्टूबर 1857 ई. को कोटा के सैनिकों ने क्रांति का बिगुल बजा दिया।

कोटा के सैनिकों ने क्रांतिकारियों के साथ रेजीडेंसी को घेर लिया तथा उसमें आग लगा दी। क्रांतिकारियों ने मेजर बर्टन और उसके दोनों पुत्रों की हत्या कर दी। क्रांतिकारियों ने शहर में जुलूस निकाला और महाराव के महल को घेर लिया। महाराव अपने महल में एक प्रकार से कैद हो गए। फिर क्रांतिकारियों ने महाराव को एक संधिपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया जिसमें 9 शर्तें थीं। इनमें से एक शर्त यह थी कि मेजर बर्टन तथा उसके पुत्रों की हत्या स्वयं महाराव के आदेश से की गई है। महाराव को क्रातिकारियों की इच्छानुसार व्यवहार करने के लिए तब तक विवश होना पड़ा, जब तक करौली से सैनिक सहायता प्राप्त नही हो गई।

क्रांतिकारियों का कोटा शहर पर अधिकार

क्रांतिकारियों का कोटा शहर पर लगभग 6 माह तक अधिकार रहा। उन्होंने सरकारी गोदामो बंगलो दुकानों अस्त्र-शस्त्र के भण्डारों आदि को लूटा और उनमें आग लगा दी। उन्होंने जिले के विभिन्न कोषागारों को भी लूटा। ऐसा लगता है कि क्रांतिकारियों को कोटा रियासत के अधिकांश अधिकारियों का समर्थन और सहयोग प्राप्त हो गया था। क्रांतिकारियों ने शहर में लूटमार और अत्याचार कर नगर के लोगों में भीषण आतंक पैदा कर दिया था। यह स्थिति तब तक बनी रही. जब मेजर एचजी राबर्टस नसीराबाद से 5500 सैनिक लेकर 22 मार्च 1858 ई. को चम्बल के किनारे पहुंचा। उसने तोपों से क्रांतिकारियों पर धुआधार गोले बरसाए और उन्हें कोटा से बाहर भागने पर विवश कर दिया। तब जाकर कोटा क्रातिकारियों के नियंत्रण से मुक्त कराया जा सका। क्रातिकारी नेताओं तथा विद्रोही सैनिकों को अमानुषिक दण्ड दिए गए और जयदयाल को गिरफ्तार करके तोप से उड़ा दिया गया।

भरतपुर में 1857 की क्रांति

भरतपुर, जो आगरा व मथुरा के काफी निकट है, क्रांति के समय अशात रहा। मथुरा में विद्रोह हो जाने के बाद भरतपुर शहर में उत्तेजना फैल गई और भरतपुर की सेना ने भी क्रांति का बिगुल बजा दिया। भरतपुर के महाराजा ने वहां के पोलिटिकल एजेन्ट मेजर मॉरिसन को भरतपुर छोड़कर जाने की सलाह दी क्योंकि महाराजा को यह आशंका थी कि उसकी उपस्थिति से नीमच के क्रांतिकारी भरतपुर पर आक्रमण कर सकते हैं। महाराजा की सलाह पर मेज़र मॉरिसन भरतपुर छोड़कर चला गया। क्रांति की अवधि में भरतपुर रियासत की स्थिति बडी विषम थी।

क्रांतिकारी सैनिकों की अनेक टुकडिया भरतपुर की सीमा से होकर गुजरी। भरतपुर की गूजर व मेवाती जनता क्रांति में पीछे नहीं रहीं. उसने खुलकर क्रांति में भाग लिया। जब पड़ोसी आगरा जिले में अंग्रेजो की शक्ति वहा के लाल किले की चारदीवारी तक सीमित हो गई तो भरतपुर की जनता के मन में यह विश्वास भर गया कि अब भारत में ब्रिटिश सत्ता समाप्त होने जा रही है।

धौलपुर में 1857 की क्रांति

धौलपुर रियासत में भी गम्भीर उपद्रव हुए। अक्टूबर 1857 ई. के प्रारम्भ में ग्वालियर और इन्दौर के क्रांतिकारियों की संयुक्त सेना धौलपुर में प्रविष्ट हो गई। क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति के कारण धौलपुर रियासत की सेना तथा अनेक अधिकारी राजा का साथ छोड़कर क्रांतिकारियों से मिल गए. जिससे धौलपुर की सत्ता खतरे में पड़ गई। क्रांतिकारियों ने धौलपुर में खूब लूटमार की। उन्होंने वहां के राजा को घेरकर जान से मारने की धमकी दी। विवश होकर राजा को क्रांतिकारियों की मांगें स्वीकार करनी पड़ी। धौलपुर में इन क्रांतिकारियों ने राव रामचन्द्र और हीरालाल के नेतृत्व में राजा की अधिकांश तोपों पर अधिकार कर लिया और उनकी सहायता से आगरा पर आक्रमण कर दिया। यह स्थिति तब तक बनी रही, जब दिसंबर में पटियाला के शासक द्वारा भेजी गई सेना की सहायता से धौलपुर में व्यवस्था स्थापित नहीं हो गई।

जयपुर में 1857 की क्रांति

जयपुर में महाराजा को उनके एक पदाधिकारी राव शिवसिंह ने यह सलाह दी कि वे अंग्रेजों तथा मुगल बादशाह बहादुरशाह दोनों से मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखें। किन्तु उनके प्राइवेट सेक्रेटरी पं. शिवदीन ने महाराज पर अंग्रेजों का साथ देने के लिए जोर डाला। जयपुर में नवाब विलायत खाँ, मियां उस्मान खाँ और सादुल्ला खाँ मुगल सम्राट से मिलकर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध क्रांति का षड्यंत्र रच रहे थे। मुगल सम्राट के साथ किए गए इनके पत्र व्यवहार की जानकारी महाराज को मालूम हो गई। अतः उन्होंने सादुल्ला खां को राज्य से निष्कासित कर दिया और शेष दोनों को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया।

टोंक में 1857 की क्रांति

टोंक में भी नवाब की सेना ने मीर आलम खां के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। टोंक का नवाब अंग्रेजों के साथ था, मगर नवाब की सेना ने नीमच के क्रांतिकारियों को टोंक आने के लिए आमंत्रित किया और उनकी सहायता से नवाब के किले को घेर लिया। नवाब ने सैनिकों को डराने धमकाने का भरपूर प्रयास किया, किन्तु वह सफल नहीं हो सका।

सलूम्बर और कोठारिया का योगदान

आउया (जोधपुर) के ठाकुर कुशालसिंह से प्रेरणा लेकर मेवाड़ के दो प्रमुख सामन्तों सलूम्बर के रावत केसरीसिंह और कोठारिया के रावत ज्योतसिंह का 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में अपूर्व योगदान रहा है। यह सही है कि मारवाड़ के सामन्तों की भांति मेवाड़ के सामन्तों ने खुलकर क्रांति में भाग नहीं लिया, किन्तु अंग्रेजों का विरोध करने वाले क्रांतिकारी नेताओं तथा ब्रिटिश सत्ता के विरोधी जागीरदारों को सलूम्बर और कोठारिया के रावतों ने अपने यहां शरण दी उन्होंने क्रांतिकारियों के परिवारों को भी आश्रय दिया।

सलूम्बर के रावत केसरीसिंह ने आस-पास के जागीरदारों को साथ लेकर आउवा के ठाकुर के स्वतंत्रता यज्ञ में भरपूर सहायता की। उदयपुर के महाराणा ने कम्पनी सरकार के साथ जो संधि की, केसरीसिंह ने उसका खुलकर विरोध किया। ए.जी. लॉरेन्स ने केसरीसिंह की ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों को देखकर महाराणा उदयपुर पर यह दवाब डाला कि वे उसके विरुद्ध कार्रवाई करें, किन्तु महाराणा उसके विरुद्ध कार्रवाई करने का साहस नहीं जुटा सके। अंग्रेजों द्वारा आउवा गांव को तहस नहस कर दिया गया तथा आउवा के ठाकुर कुशालसिंह निरीह अवस्था में इधर-उधर भटक रहे थे, तब कोठारिया के रावत ज्योतसिंह ने उनको गले लगाया। उन्होंने कोठारिया में पेशवा नाना साहब और उनके परिवार को भी शरण दी तथा सब प्रकार की सुख-सुविधा उपलब्ध कराई। इस प्रकार ब्रिटिश सत्ता का विरोध कर व भावी परिणामों की चिन्ता न कर सलूम्बर व कोठारिया के रावतों ने अपूर्व त्याग और साहस का परिचय दिया।

1857 की क्रांति की असफलता के कारण

  1. राजस्थान के राजाओं ने अंग्रेजों के प्रति अपनी झुकने की प्रवृत्ति का परिचय दिया। जयपुर अलवर, भरतपुर धौलपुर, करौली सिरोही टॉक, बीकानेर डूगरपुर, बासवाड़ा और प्रतापगढ़ के शासकों ने विप्लव की आंधी को रोकने के लिए ब्रिटिश सत्ता को सहयोग दिया। मुगल सम्राट बहादुर शाह तथा स्थानीय विद्रोहियों ने राजस्थानी राजाओं को स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व प्रदान करने हेतु आमंत्रित किया, पर इसके बाद भी उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया।
  2. राजस्थान के विद्रोहियों में आपसी एकता और सम्पर्क का अभाव था। कोटा, नसीराबाद, भरतपुर, धौलपुर, टोंक आदि में अलग अलग समय पर क्रांति होने के कारण अंग्रेजों को विद्रोहियों से निपटने का अवसर मिल गया।
  3. मारवाड़, मेवाड और जयपुर आदि के नरेशों ने तात्या टोपे को किसी प्रकार सहयोग नहीं दिया।
  4. राजस्थान की 18 रियासतों में संगठन और एकता का अभाव था। नेतृत्व के लिए जब मेवाड़ है महाराणा से सम्पर्क किया तो नेतृत्व प्रदान करने के बजाय उन्होंने शासकों के पत्र-व्यवहार संबंधी सार कागजात ही ब्रिटिश अधिकारियों को सौंप दिए।
  5. राजस्थान अनेक देशी रियासतों में बटा हुआ था। इस कारण उसमें क्रांतिकारियों का कोई केन्द्रीय संगठन नहीं था। उनमें नेतृत्व का भी सर्वथा अभाव था। क्रातिकारियों के बीच आपस में सम्पर्क भी नहीं रहा था। उनमें त्याग और बलिदान की भावना तो थी, किन्तु उनमें न तो अंग्रेजो जैसा रणकौशल ही था और न वे अंग्रेज सैनिकों के समान प्रशिक्षित थे। इसके अतिरिक्त क्रांतिकारियों को धन रसद और हथियारों की कमी का भी सामना करना पड़ा।
  6. अंग्रेजों ने अन्य क्षेत्रों में हुई क्रांति का दमन करते हुए जून 1858 ई. तक उत्तर भारत के अधिकांश भागों पर पुनः अपना नियंत्रण कर लिया। इस कारण उन्होंने राजस्थान में हुई क्रांति का दमन करने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी।

1857 की क्रांति की असफलता के परिणाम :

  1. सन् 1857 की क्रांति के असफल होने के बाद राजस्थान की रियासतें ब्रिटिश संरक्षण में चली गई।
  2. ब्रिटिश सम्राट ने राजस्थान की सभी रियासतों में कम्पनी द्वारा की गई संधिया जारी रखी।
  3. राजस्थान की जनता पर अब गुलामी का दोहरा अंकुश हो गया। एक तो वे रियासती राजाओं के अधीन थे, दूसरे अंग्रेजों का भी उन पर नियंत्रण हो गया। परिणामस्वरूप यह निश्चित हो गया कि निकट भविष्य में राजस्थान में स्वतंत्रता आंदोलन का कोई भविष्य नहीं है।
  4. अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के कारण भी लोगों में राष्ट्रीय जागृति का प्रादुर्भाव हुआ । स्वधर्म, स्वदेशी, स्वराज, स्वभाषा के फलस्वरूप लोगों में क्रांति की भावना पुनः पल्लवित हुई। इस भावना का बल प्रदान करने वालों में अर्जुनलाल सेठी, केसरीसिंह बारहठ, गोपालसिंह खरवा आदि अग्रणी माने जाते हैं। इस क्रांति की असफलता ने भावी संगठित आंदोलन की भूमिका तैयार कर दी।

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