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Rajasthan kee Hastakala : राजस्थान की हस्तकला प्रतियोगी परीक्षा उपयोगी महत्वपूर्ण हस्तकला सम्पूर्ण जानकारी जाने यह

Rajasthan kee Hastakala : हाथों द्वारा कलात्मक एवं आकर्षक वस्तुओं को बनाना ही हस्तशिल्प (हस्तकला) कहलाता है। राजस्थान में निर्मित की वस्तुएं न केवल भारत में प्रसिद्धि पा रही है बल्कि विदेशों में भी इन वस्तुओं ने अलग अमिट छाप छोड़ी है। आज भी राजस्थान अपनी हस्तकला के लिए सम्पूर्ण देश में हस्तशिल्पों के आगार के रूप में जाना जाता है। राज्य की कता छपाई, चित्रकारी, मीनाकारी, पॉटरी कला, मूर्तिकला आदि हस्तकलाएं विश्वभर में प्रसिद्ध है।

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Rajasthan kee Hastakala
Rajasthan kee Hastakala

Rajasthan kee Hastakala

  • हस्तकला एक लघु उद्योग है।
  • हस्तकला को संरक्षण राजसीको द्वारा दिया जाएगा।
  • हस्तकला का तीर्थ जयपुर को कहा जाता है।
  • राजस्थान सरकार हस्त निर्मित वस्तुओं को राजस्थानी नाम से विपणित करती हैं।
  • राजस्थान में राज्य औद्योगिक नीति 1998 में हस्तशिल्प उद्योग पर विशेष बल दिया गया है।
  • राजस्थान में हस्तकला (Rajasthan kee Hastakala) का सबसे बड़ा केन्द्र बोरानाडा (जोधपुर) में है।

राजस्थान में स्थापित शिल्पग्राम

  1. हवाला शिल्पग्राम उदयपुर।
  2. जवाहर कला केंद्र जयपुर।
  3. पाल शिल्पग्राम जोधपुर।
  4. दरी उद्योग को बढ़ावा देने हेतु स्थापित शिल्पग्राम बस्सी चित्तौड़गढ़, उमराव बूंदी, धारियाबाद प्रतापगढ़।

वस्त्र पर हस्तकला

वस्त्र पर हस्तकला में पिंजाई, छपाई, बुनाई, रंगाई, कढ़ाई एवं बन्धेज का कार्य किया जाता है।(Rajasthan kee Hastakala)

(क) छपाई कला (ब्लॉक प्रिन्ट)

कपड़े पर परम्परागत रूप से हाथ से छपाई का कार्य छपाई कला या ब्लॉक प्रिन्ट कहलाता है। राज्य में छपाई का कार्य छीपा/ खत्री जाति के लोगों द्वारा किया जाता है। लकड़ी की छापों से की जाने वाली छपाई को ठप्पा या भांत कहते हैं। कपड़ों पर डिजाइन बनाकर बारिक धागों से छोटी-छोटी गाँठे बाँधने को नग बाँधना’ कहते हैं। राजस्थान की छपाई का प्राचीनतम उदाहरण मिस्र की पुरानी राजधानी अल फोस्तान में 969 ई. की कब्रों में राजस्थानी व गुजराती छींटों को दफनाए मृत शरीर के साथ लपेटा हुआ मिला है। राजस्थान में बगरू (जयपुर), सांगानेर (जयपुर), बाड़मेर, बालोतरा, पाली, आकोला (चित्तोड़गढ़) आदि रंगाई – छपाई के लिए प्रसिद्ध है।
(i) अजरख प्रिन्ट :- बाड़मेर अजरस प्रिन्ट से उपे वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध है। अजरख की विशेषता है दोनों और छपाई। अजरख प्रिन्ट में विशेषतः नीले व लाल रंग का प्रयोग किया जाता है।

(ii) मतीर प्रिन्ट :- मतीर प्रिन्ट के लिए बाड़मेर प्रसिद्ध है।(Rajasthan kee Hastakala)

बाड़मेर की मलीर प्रिन्ट में कत्थई व काले रंग का प्रयोग किया जाता है।

बाड़मेर छपाई में कपड़े पर ठप्पे छपाई की नई तकनीक ‘टिन सेल छपाई से छपाई की जाती है

(iii) दाबू प्रिन्ट :- चित्तौड़गढ़ जिले का आकोला गाँव दाबू प्रिन्ट के लिए प्रसिद्ध है दाबू का अर्थ दबाने से है। रंगाई-छपाई में जिस स्थान पर रंग नहीं चढ़ाना हो, तो उसे लई या लुगदी से दबा देते हैं। यही लुगदी या लई जैसा पदार्थ ‘दाबू’ कहलाता है, क्योंकि यह कपड़े के उस स्थान को दबा देता है, जहाँ रंग नहीं चढ़ाना होता है।

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राजस्थान में तीन प्रकार का दाबू प्रयुक्त होता हैं।

(A) मोम का दाबू :- सवाईमाधोपुर में।

(B) मिट्टी का दाबू :- बालोतरा (बाड़मेर) में।

(C) गेहूँ के बींधण का दाबू :- बगरू व सांगानेर में।

आकोला में हाथ की छपाई में लकड़ी के छापे प्रयोग किए जाते हैं, उन्हें बतकाड़े कहा जाता है। इसका निर्माण खरादिए द्वारा किया जाता है।

(iv) वगरू प्रिन्ट :- जयपुर के बगरू प्रिन्ट में लाल व काला रंग विशेष रूप से प्रयुक्त होता है।
(v) सांगानेरी प्रिंट :- सांगानेरी छपाई लट्ठा या मलमल पर की जाती है। ठप्पा (छापा) और रंग सांगानेर की विशेषता है। सांगानेर में छपाई का कार्य करने वाले सीपे नामदेवी की कहलाते है। सांगानेरी प्रिंट में प्राय: काला और ताल रंग ज्यादा काम में लाए जाते है। सांगानेरी प्रिन्ट को विदेशों में लोकप्रिय बनाने का श्रेय ‘मुन्नालाल गोयल’ को जाता है।(Rajasthan kee Hastakala)

(vi) जाजम प्रिंट:- आकोला (चित्तौड़गढ़) की जाजम प्रिंट प्रसिद्ध है। इस प्रकार की छपाई में लाल व हरे रंग का प्रयोग किया जाता है। यहाँ की छपाई के घाघरे प्रसिद्ध है।

(vii) ‘रुपहली व सुनहरी छपाई के लिए प्रसिद्ध :– किशनगढ़, चित्तौड़गढ़ व कोटा। (viii) चुनरी भात की छपाई के लिए प्रसिद्ध आहड़ और भीलवाड़ा। (ix) सुनहरी छपाई के लिए प्रसिद्ध: मारोठ व कुचामन । (x) भौडल (अभ्रक) की छपाई के लिए प्रसिद्ध भीतवाड़ा। (xi) टुकड़ी छपाई के लिए प्रसिद्ध :- जालोर व मारोठ (नागौर)।

(viii) खड्डी की छपाई के लिए प्रसिद्ध:- जयपुर व उदयपुर

राजस्थान छीटों की छपाई के लिए सदा प्रसिद्ध रहा है। छीटों का उपयोग स्त्रियों के ओढ़ने और पहनने दोनों प्रकार के वस्त्रों में होता है। छीटों के मुख्यतः दो भेद है: छपकली और नानण विवाहोत्सवों में वधू के लिए ‘धांसी की साड़ी काम में लाई जाती है। लहरदार छपाई के लुगड़ों को लेहरिया कहते हैं। लेहरियों के मुख्य रंग के मध्य छपाई की रेखाएँ उकेळी कहलाती है। मोठड़ा का लेहरिया बंधाई के लिए राजस्थान के जोधपुर और उदयपुर शहर प्रसिद्ध हैं।

फाँटा / फेंटा :- गुर्जरों और मीणों के सिर पर बाँधा जाने वाला साफा ।।

(A) चारसा:- बच्चों के ओढ़ने का वस्त

(B) सोड पतरणे : उपस्तरण।

(C) सावानी :- कृषकों के अंगोछे।

बयाना अपने नील उत्पादन के लिए जाना जाता था।

(ख) सिलाई :- कपड़े को काट-छाँटकर वस्त्र बनाने वाला कारीगर दरजी कहलाता है।

– मेवाड़ में कोट के अन्दर रुई लगाने की प्रक्रिया लगाई कहलाती है।(Rajasthan kee Hastakala)

विभिन्न रंगों के कपड़ों को विविध डिजाइनों में काटकर कपड़े पर सिलाई की जाती है, जो पेचवर्क कहलाता है। पेचवर्क शेखावटी का प्रसिद्ध है।

कढ़ाई:- सूती या रेशमी कपड़े पर बादते से छोटी-छोटी बिंदकी की कढ़ाई मुकेश कहलाती है राजस्थान में सुनहरे धागों से जो कढ़ाई का कार्य किया जाता है उसे ‘जरदोजी’ का कार्य कहा जाता है।

भरत, सूफ, हुरम जी, आरी आदि शब्द कढ़ाई व पेचवर्क से संबंधित हैं।

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काँच कशीदाकारी के लिए रमा देवी को राज्य स्तरीय सिद्धहस्त शिल्पी पुरस्कार 1989-90 दिया गया। चौहटन (बाड़मेर) में काँच कशीदाकारी का कारोबार सर्वाधिक है। राजस्थान में रेस्तिछमाई के ओढ़ने पर जरीभांत की कशीदाकारी जैसलमेर में होती है।

गोटा :- सोने व चाँदी के परतदार तारों से वस्त्रों पर जो कढ़ाई का काम लिया जाता है उसे ‘गोटा कहते हैं। कम चौड़ाई वाले गोटे को लप्पी कहते है। खजूर की पत्तियों वाले अलंकरण युक्त गोटा को लहर गोटा कहते हैं।

गोटे का काम जयपुर व बातिक का काम खण्डेला में होता है।

गोटे के प्रमुख प्रकार :- लप्पा, लप्पी, किरण, बांकड़ी, गोखरू, बिजिया, नवशी आदि।

जयपुर का गुलाल गोटा देशभर में प्रसिद्ध है। जयपुर का गुलाल गोटा लाख से निर्मित है।

(ग) रंगाई :- वस्लों की रंगाई का काम करने वाले मुसलमान कारीगर रंगरेज कहलाते हैं। सीवन खाना, रंग खाना, छापाखाना सवाई जयसिंह द्वारा संस्थापित कारखाने हैं जो वस्त्रों की सिलाई, रंगाई एवं छपाई से सम्बन्धित थे।

रंगाई के प्रमुख प्रकार:- पोमचा, बन्धेज, लहरियां, चुनरी, फेंटया, छीट आदि ।

बन्धेज :- कपड़े पर रंग चढ़ाने की कला।(Rajasthan kee Hastakala)

  • चढ़वा / बंधारा :- बंधाई का काम करने वाले कारीगर ।
  • बंधेज का सर्वप्रथम उल्लेख:- हर्षचरित्र में (बाणभट्ट द्वारा लिखित)
  • बाँध के प्रकार :- डब्बीदार, बेहदार, चकदार, मोठड़ा, चूनड़ और लेहरया
  • जयपुर का बंधेज अधिक प्रसिद्ध है। जरी के काम के लिए जयपुर विश्व प्रसिद्ध है।
  • राज्य में बंधेज की सबसे बड़ी मंडी जोधपुर में है तो बंधेज का सर्वाधिक काम सुजानगढ़ (चूरू) में होता है।
  • ऐसा माना जाता है कि बन्धेज कला मुल्तान से मारवाड़ में लाई गई थी।
  • बंधेज कार्य के लिए तैय्यब खान (जोधपुर) को पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है।
  • बंधेज कता की नींव सीकर के फूल भाटी व बाच भाटी नामक दो भाईयों ने रखी।

पोमचा :- स्त्रियों के ओढ़ने का वस्त

प्रकार: 1 कोड़ी 2 रेणशाही 3. लीला 4. सावली

पोमचा का तात्पर्य:- कमल फूल के अभिप्राय युक्त ओढ़नी राज्य में पोमचा वंश वृद्धि का प्रतीक माना जाता है। पोमचा बच्चे के जन्म पर नवजात शिशु की माँ के लिए पीहर पक्ष की ओर से आता है।

  • बेटे के जन्म पर पीला व बेटी के जन्म पर गुलाबी पोमचा देने का रिवाज है।
  • जयपुर का पोमचा पूरे राज्यभर में प्रसिद्ध है।
  • पोमचा सामान्यतः पीले रंग का ही होता है।
  • पीले पोमचा का ही एक प्रकार पाटोदा का तुगड़ा सीकर के लक्ष्मणगढ़ का प्रसिद्ध है।
  • चीड़ का पोमचा राज्य के हाड़ौती क्षेत्र में प्रचलित है।

लहरिया :- राज्य में विवाहिता स्लियों द्वारा ओढ़ी जाने वाली लहरदार ओढ़नी

  • लहरिया के प्रकार: फोहनीदार पचतड़ खत, पाटली जातदार पल्लू नगीना
  • राज्य में जयपुर का समुद्र लहर लहरिया सबसे अधिक प्रसिद्ध है।(Rajasthan kee Hastakala)

(क) मीनाकारी

सोना चाँदी के आभूषणों व कलात्मक वस्तुओं पर मीना चढ़ाने की कला मीनाकारी कहलाती है। मीनाकारी में मुखात लाल व हरे रंग का प्रयोग किया जाता है। मीनाकारी की कारीगरी आमेर के राजा मानसिंह प्रथम लाहौर से जयपुर ताये थे। लाहोर के सिक्खों ने यह कला फारस के मुगलों से सीखी।

प्रमुख मीनाकार:- कांशीराम, कैलाशचन्द्र, हरीसिंह, अमरसिंह, किशनसिंह, शोभासिंह आदि। मीनाकारी का जादूगर कुदरतसिंह (जयपुर) सन् 1988 ई. में पद्मश्री से सम्मानित

कागज जैसे पतले पतरे पर मीनाकारी:- बीकानेर

चांदी पर मीनाकारी:- नाथद्वारा (राजसमन्द)

पीतल पर मीनाकारी :- जयपुर।

ताँबे पर मीनाकारी :-  भीलवाड़ा।

सोने पर मीनाकारी: प्रतापगढ़।

काँच पर विभिन्न रंगों से बहुरंगी मीनाकारी रेतवाली क्षेत्र (कोटा)

(ख)थेवा कला:(Rajasthan kee Hastakala)

काँच की वस्तुओं पर सोने का सूक्ष्म व कलात्मक चित्रांकन। इस कला में हरा रंग प्रयुक्त होता है। प्रतापगढ़ का में राजसोनी परिवारथेवा कला के लिए प्रसिद्ध है। यह कला दो शब्दों से मिलकर बनी है।

घेरना: – बार-बार स्वर्ण सीट को पीटते रहने की प्रक्रिया।

वादा :- स्वर्ण शीट पर विभिन्न आकृतियाँ उकेरने के लिए उपयोगी चाँदी के रिंग की फ्रेम।

इस प्रकार स्थानीय भाषा में उच्चारित ‘थेरनावादा’ से मिलकर ‘थेवा’ शब्द बना।

इस कला में रगीन बेल्जियम काँच का प्रयोग किया जाता है। इस कला का आविष्कार लगभग 16वीं सदी में प्रतापगढ़ रियासत के “राजा सावंतसिंह के समय में हुआ। नाथूजी सोनी को थेवा कला का जनक माना जाता है।
थेवा कला के प्रसिद्ध कलाकार:- रामप्रसाद राजसोनी, वेणीराम राजसोनी, रामविलास राजयोनी, जगदीश राजनी, महेश राजन एवं गिरिया कुमार

थेवा कला का नाम इनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका में भी अंकित है।

कुंदन कला :-(Rajasthan kee Hastakala)

सोने के आभूषणों में कीमती पत्थरों को जोड़ने की कला, राजस्थान में कुंदन के काम के लिए जयपुर जिला सर्वाधिक प्रसिद्ध है।

कोफ्तगिरी: फौलाद की बनी हुई वस्तुओं पर सोने पीतल की के पतले तारों से की जाने वाली जड़ाई कोफ्तागिरी कहलाती है। यह कला मूल रूप से दमिश्क की है। राज्य के जयपुर एवं अलवर जिले इस कला के लिए प्रसिद्ध हैं।

तहनिशा :- तहनिशा कला में किसी भी वस्तु पर डिजाइन को गहरा खोदकर उसमें पीतल का पतला तार भर दिया जाता है। राजस्थान में अलवर जिले की तलवार जाति एवं उदयपुर की सिकलीगर जाति इस कला के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध है।

तारकशी: चाँदी के बारीक तारों से विभिन्न आभूषण एवं कलात्मक वस्तुएं बनाना तारकमी कहलाता है। तारकशी का कार्य नाथद्वारा में सर्वाधिक किया जाता है।

बादला :- पानी को ठंडा रखने के लिए जस्तै (जिंक) से निर्मित कलात्मक पानी की बोतले बादला’ कहलाती है। जोधपुर के बादसे सर्वाधिक प्रसिद्ध है। बादले का आविष्कार कुचामन के कुम्हारों ने किया था।

मुरादाबादी:- पीतल के बर्तनों पर खुदाई करके उस पर कलात्मक नक्काशी का कार्य मुरादाबादी कहलाता है। प्रमुख केन्द्र :- जयपुर व अलवर।

कलईगिरी :- तांबा, पीतल आदि धातुओं के बर्तनों पर की जाने वाली चमका कलई कहलाती है और कलई करने वाला कारीगर कलईगर कहलाता है।

कावड़ :- मंदिरनुमा काष्ठकलाकृति, जिसमें कई द्वार होते हैं और उन पर देवी-देवताओं के पौराणिक चित्र बने होते हैं। कावड़ के सभी दरवाजे खोल देने पर राम-सीता के दर्शन होते हैं। कावड़ को लाल रंग से रंगा जाता है जिस पर काले रंग से चित्र बनाये जाते हैं। कावड़ का निर्माण बस्सी (चित्तौड़गढ़) की खेरादी जाति के लोगों द्वारा किया जाता है।

बेवाण:- काष्ठ से निर्मित मंदिर। इन बेवाणों को बनाने एवं इन पर चित्रकारी का कार्य कलात्मक होता है। बेवाण को मिनिएचर वुडन टेम्पल’ भी कहा जाता है। बस्सी के कलाकार ‘बेवाण’ बनाने में निपुण हैं।

-काष्ठ पर कलात्मक शिल्प बनाने में जेठाणा (डूंगरपुर) प्रसिद्ध है।

कठपुतलियाँ एवं खिलौने :-

राजस्थान में काष्ठ से बनी कलात्मक चित्रांकन से युक्त कठपुतलियों राजस्थान की परम्परागत हस्तशिल्प की अनूठी सौगात हैं। कठपुतली की जन्मस्थली राजस्थान को माना जाता है। कठपुतली बनाने का काम आमतौर पर उदयपुर व चित्तौड़गढ़ में होता है। कठपुतली नाटक में स्थानक ही नाटक का मूल स्तम्भ होता है। कठपुतलियाँ ‘आडु की लकड़ी’ की बनाई जाती है। स्व. श्री देवीलाल सामर के नेतृत्व में भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर ने कठपुतली कला का विस्तार तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दादा पदम जी को कठपुतलियों का जादूगर कहा जाता है।

– गणगौर बनाने का कार्य चित्तौड़ के बस्सी में किया जाता है।

गलियाकोट (डूंगरपुर) :- रमकड़ा उद्योग

– बाड़मेर लकड़ी पर कलात्मक खुदाई करके फर्नीचर बनाने के लिए प्रसिद्ध है।

चूरू चंदन काष्ठ पर अति सूक्ष्म नक्काशी के लिए देश-विदेश में विख्यात है। स्व मालचन्द बादाम वाले, चौधमल, नवस्त्रमत चन्दन की काष्ठ कला के लिए विख्यात है।

-चन्दन काष्ठ कला के चितेरे:- पवन जांगिड़, चौथमल जांगिड़, महेशचन्द्र, रमेशचन्द्र जांगिड़, मूलचन्द्र जांगिड़

मेड़ता के खस के पखे तथा लकड़ी के खिलौने प्रसिद्ध है।

नाई गाँव (उदयपुर) :- लकड़ी के आभूषणों के लिए प्रसिद्ध

पालणा :- छोटे बच्चों के लिए हींदा डालने और खाखला आदि भरने के लिए काम में आने वाला छाबड़ा।

चेला :- काष्ठ के तराजू के पलड़े

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उस्ता कला:-(Rajasthan kee Hastakala)

बीकानेर में ऊँट की खाल पर सुनहरी नक्काशी का चित्रण करना ही मुनव्वती कला कहलाती है। यह कला उस्ता कता के नाम से भी प्रसिद्ध है। बीकानेर के उस्ता परिवारों ने यह कार्य शुरू किया का उद्गम ईरान में हुआ यह कला मुगल काल में भारत तथा भारत से राजस्थान आई। राजस्थान में उस्ता कला के कलाकारों को सर्वप्रथम आश्रय बीकानेर के राजा रायसिंह ने दिया। राजस्थान में सर्वप्रथम प्रसिद्धि दिलाने वाला व्यक्ति ‘कादरवख्य’ था। इलाही बख्श उस्ता जर्मन चित्रकार ए. एच. मूलर का शिष्य था।

इलाहीबख्श उस्ता ने स्व. गंगासिंहजी का चित्र बनाया जो वर्तमान में भी UNO मुख्यालय में लगा हुआ है। अगस्त 1975 में उस्ता कैमल हाइड ट्रेनिंग सेंटर की स्थापना बीकानेर में की गई। इस सेंटर के प्रथम निदेशक स्व. हिसामुद्दीन उस्ता थे तथा प्रथम प्रशिक्षण प्राप्त करने वाला कारीगर मोहम्मद असगर उस्ता था। 1914 ई. में दुलमेरा (बीकानेर) में जन्मे हिसामुद्दीन उस्ता इस कला के प्रसिद्ध कलाकार थे। 1986 में हिसामुद्दीन उस्ता को राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने पद्मश्री से सम्मानित किया। वर्ष 1987 में हिसामुद्दीन उस्ता का निधन हो गया। वर्तमान में इस कला के प्रसिद्ध कलाकार हनीफ उस्ता है। जिन्होंने अजमेर के ख्वाजा साहब की दरगाह पर स्वर्ण नक्काशी का कार्य किया। जोधपुर के ज्योति स्वरूप शर्मा ने ऊँट की खाल से दाल व सुराही पर नक्काशी की।

– मारवाड़ में ऊँट के बच्चे को ‘तोड्यो’ कहा जाता है जिसके मुलायम बालों को सूत के साथ धागा मिलाकर कपड़ा तैयार किया जाता है। इसे बाखल कहते है।

– गड़े की खाल से बनी ढाल पर सुनहरी नक्काशी के लिए जोधपुर के ‘लालसिंह भाटी को राष्ट्रपति पुरस्कार प्रदान किया गया है।

मृण शिल्प :-

कुम्हार / कुंभार :- मिट्टी के बर्तन, खिलौने, खेल आदि बनाने वाला काल में कुम्हार के लिए कुलाल शब्द का प्रयोग होता था।

टेराकोटा :- मृण-शिल्प अर्थात् मिट्टी से मूर्तियां बनाने की कला। मोलेला गाँव (राजसमन्द) मृण शिल्प के लिए प्रसिद्ध है। मोलेला व हरजी के कुम्हार मिट्टी में गधे की लीद मिलाकर मूर्तियाँ बनाते हैं एवं उन्हें उच्च ताप पर पकाते हैं। प्रसिद्ध शिल्पकार :- मोहनलाल प्रजापत। मोलेला गाँव के कुम्हार मूर्तियाँ बनाने के लिए ‘सोलानाड़ा तालाब की काली चिकनी मिट्टी काम में लेते हैं।

हरजी गाँव (जालौर) के कुम्हार मामाजी के घोड़े बनाते हैं।

– बू-नरावता गाँव मिट्टी के खिलोने, गुलदस्ते, गमले, पक्षियों की कलाकृतियों के काम के लिए प्रसिद्ध है। बू-नरावता गाँव नागौर जिले में स्थित है।

मेहटोली (भरतपुर):- मृत्तिका शिल्प के लिए प्रसिद्ध गाँव ।

ब्ल्यू पॉटरी-चीनी मिट्टी के आकर्षक बर्तनों पर चित्रकारी।

पर्शिया दमिश्क-विश्व में ब्ल्यू पॉटरी का जन्म स्था

– भारत में इस कला का प्रचलन दिल्ली व मुल्तान में अकबर के शासन काल में हुआ।

राजस्थान में इस कला को सबसे पहले ताने का श्रेय आमेर के राजा मानसिंह प्रथम को जाता है। मानसिंह इस कला को लाहौर से जयपुर लेकर आए।

राजस्थान में ब्ल्यू पॉटरी का सर्वाधिक विकास महाराजा रामसिंह के समय हुआ था। राजस्थान में इस कला को लाने का वास्तविक श्रेय महाराजा रामसिंह को ही जाता है।

-पूरे देश में इस कला को प्रसिद्ध करने का श्रेय पदमश्री प्राप्त कृपालसिंह शेखावत को जाता है। कृपालसिंह शेखावत को 1974 ई. में पदमश्री से सम्मानित किया गया है। इन्होंने ब्लू पॉटरी में 25 रंगों का प्रयोग कर नई शैली (कृपाल शैली) का विकास किया। कृपालसिंह शेखावत का जन्म मऊ (सीकर) में हुआ था। इनका 2009 में निधन हो गया था।

ब्ल्यू पॉटरी में नीला, हरा, मटियाला तथा तांबाई रंग विशेष रूप से काम में लेते हैं।

-ब्ल्यू पॉटरी के कलाकार – प्रभुदयात यादव, मीनाक्षी राठौड़, गोपाल सैनी

स्व. नाथीबाई ब्ल्यू पॉटरी की सिद्ध हस्तकला महिला थी।

ब्लैक पॉटरी के लिए प्रसिद्ध: कोटा।

कागजी पॉटरी के लिए प्रसिद्ध अतवर कागजी पॉटरी को पतती, कागदी परतदार या डबलकोर्ट पॉटरी भी कहा जाता है।

खुर्जा गाँव (UP) की सुप्रसिद्ध ब्ल्यू पॉटरी मशीन से बनती है।

– सुनहरी पेटिंग वाली पॉटरी के लिए प्रसिद्ध बीकानेर।

मूण- पश्चिमी राजस्थान में बनाये जाने वाले बड़े मटके

कुंजबिहारी सोनी मिट्टी की ज्वैलरी बनाने में सिद्धहस्ता

हाथीदाँत व चन्दन का कार्य-

हाथीदांत का काम भरतपुर जयपुर मेहता, पाली एवं उदयपुर में होता है। हाथीदाँत के प्रमुख कारीगर मातचंद, रमेश चन्द्र गोवर्धन फकीरचन्द लालचन्द है।

किशोरी ग्राम (अलवर) सगमरमर की मूर्तियों एवं घर उपयोग की वस्तुओं के निर्माण के लिए प्रसिद्ध

 

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